मैं बचपन को बुला रही थी कविता

“मैं बचपन को बुला रही थी” सुभद्रा कुमारी चौहान की एक बेहद संवेदनशील और भावुक कविता है, जो पाठक को अपने बीते हुए बचपन की मधुर स्मृतियों में ले जाती है। इस कविता में कवयित्री ने बचपन की मासूमियत, निश्चिंतता, और उस समय के अनुभवों को बड़ी ही सरलता और भावुकता के साथ प्रस्तुत किया है।

बचपन एक ऐसा समय होता है, जब न तो जीवन की समस्याएँ होती हैं, न ही कोई जिम्मेदारियाँ। वह समय सिर्फ खेल-कूद, सपनों और बेफिक्री का होता है। इस कविता में कवयित्री ने अपने बचपन की उन्हीं सुनहरी यादों को पुनः जीने की इच्छा जताई है। माँ की गोदी का सुकून, गुड़ियों के खेल, सपनों में घोड़े दौड़ाना – यह सब कुछ बचपन के उस अनमोल खजाने का हिस्सा हैं, जिन्हें कवयित्री पुनः प्राप्त करना चाहती हैं।

कविता के हर पंक्ति में एक गहरी भावनात्मकता छिपी है, जो बचपन की यादों को और भी जीवंत बना देती है। कवयित्री का यह कहना कि “मैं बचपन को बुला रही थी”, यह संकेत है कि वर्तमान के संघर्ष और तनाव से वह दूर जाना चाहती हैं, और फिर से उस निश्छल और आनंदपूर्ण दुनिया में लौटना चाहती हैं, जहाँ केवल खुशियों का राज था।

यह कविता न केवल बचपन की सुंदरता का वर्णन करती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, हम बचपन की उन मासूम और निर्दोष खुशियों को कितना मिस करने लगते हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान ने बचपन के इन सुनहरे पलों को संजोते हुए, जीवन के प्रति गहरी संवेदनशीलता और अपने सरल व भावपूर्ण अंदाज में इसे व्यक्त किया है।


यह कविता बचपन की मासूमियत और सरलता को याद करती है, जिसमें बचपन की खुशियाँ, मस्ती और खेल फिर से जीने की चाह है।

मैं बचपन को बुला रही थी कविता

मैं बचपन को बुला रही थी
– सुभद्रा कुमारी चौहान

  • मैं बचपन को बुला रही थी।
    बुला रही थी, पास बुला रही थी।
  • आया वह तो रोक न पाई,
    हँसी जहाँ पर वहाँ बिठाई।
    खेल जहाँ खेले जाते थे,
    माँ की गोदी फिर से पाई।
    नींद जहाँ पर घोड़ा दौड़ाए,
    चुनमुन तारा बनकर छाए।
  • गुड़िया की बारात सजाई,
    गुड्डे से फिर मैंने शादी रचाई।
  • भूल गई सब कुछ मैं उसकी,
    मस्ती में खोई खोई।
    फिर से बचपन की दुनिया,
    मुझे अपनी प्यारी हो गई।

यह कविता सुभद्रा कुमारी चौहान की है, जो भारतीय साहित्य की प्रमुख कवयित्रियों में से एक हैं। कविता में कवयित्री अपने बचपन की मासूमियत और खुशियों को याद करती हैं और बचपन को फिर से बुलाने की चाहत व्यक्त करती हैं। आइए, अब हर पंक्ति का विस्तार से अर्थ समझते हैं:

1. “मैं बचपन को बुला रही थी।”

  • इस पंक्ति में कवयित्री कहती हैं कि वह अपने बचपन को वापस बुलाने की कोशिश कर रही हैं। वह अपने बचपन की यादों में खोने की चाह रखती हैं, जैसे वह उन पलों को दोबारा जीना चाहती हों।

2. “बुला रही थी, पास बुला रही थी।”

  • यहाँ कवयित्री बताती हैं कि वह बार-बार बचपन को अपने पास बुला रही हैं, जैसे वह उन बीते हुए पलों को करीब से फिर से अनुभव करना चाह रही हों।

3. “आया वह तो रोक न पाई,”

  • जब बचपन की यादें उनके मन में वापस आती हैं, तो वह उन्हें रोक नहीं पातीं। वह तुरंत उन यादों में डूब जाती हैं और उनके साथ समय बिताना चाहती हैं।

4. “हँसी जहाँ पर वहाँ बिठाई।”

  • बचपन की खुशी भरी यादें उन्हें वापस उसी हंसी और मज़े की जगह पर ले जाती हैं, जहाँ वह अपने बचपन के दिनों में हँसती और खुश रहती थीं।

5. “खेल जहाँ खेले जाते थे,”

  • यहाँ कवयित्री अपने बचपन के खेलों को याद करती हैं। वह उन जगहों पर वापस जाना चाहती हैं जहाँ वह अपने दोस्तों के साथ खेला करती थीं, उन मस्ती भरे पलों को याद कर रही हैं।

6. “माँ की गोदी फिर से पाई।”

  • इस पंक्ति में कवयित्री अपनी माँ की गोदी को याद कर रही हैं। बचपन में माँ की गोद एक सुरक्षित और प्यार भरी जगह होती है, और वह उसे फिर से महसूस करना चाहती हैं।

7. “नींद जहाँ पर घोड़ा दौड़ाए,”

  • कवयित्री यहाँ उस समय की बात कर रही हैं जब बचपन में हम सपनों में घोड़े की सवारी करते थे। बच्चे की कल्पना शक्ति बेहद अद्भुत होती है, जहाँ वह अपने सपनों में ऊँची उड़ान भरते हैं।

8. “चुनमुन तारा बनकर छाए।”

  • इस पंक्ति में कवयित्री कहती हैं कि उनके बचपन में तारे कितने सुंदर और जादुई लगते थे। तारे छोटे बच्चों के लिए एक आकर्षण का केंद्र होते हैं, और कवयित्री उस खूबसूरत आकाश की कल्पना में खो जाती हैं।

9. “गुड़िया की बारात सजाई,”

  • यहाँ वह गुड़ियों के साथ खेलते हुए उनकी बारात सजाने की बात करती हैं, जो छोटे बच्चों का एक प्रमुख खेल होता है। वह गुड़िया की शादी और उसकी तैयारियों को याद कर रही हैं।

10. “गुड्डे से फिर मैंने शादी रचाई।”

  • इस पंक्ति में वह बताती हैं कि उन्होंने अपनी गुड़िया की शादी गुड्डे से कराई थी, जो बचपन के मासूम और प्यारे खेल होते थे।

11. “भूल गई सब कुछ मैं उसकी,”

  • जब वह बचपन की यादों में खो जाती हैं, तो वह अपने वर्तमान की सभी चिंताओं और परेशानियों को भूल जाती हैं। बचपन की यादें इतनी मासूम होती हैं कि वे सारे तनाव को दूर कर देती हैं।

12. “मस्ती में खोई खोई।”

  • वह अपने बचपन की मस्ती और मासूमियत में इतनी खो जाती हैं कि वर्तमान की हर परेशानी, चिंता उनसे दूर हो जाती है।

13. “फिर से बचपन की दुनिया, मुझे अपनी प्यारी हो गई।”

  • अंत में कवयित्री यह कहती हैं कि बचपन की दुनिया फिर से उनके लिए बहुत प्यारी हो गई है। वह उस दुनिया में लौटना चाहती हैं, जहाँ केवल खुशी और मासूमियत होती थी।

कविता बचपन की सरलता, मासूमियत, और निश्छल खुशियों की तरफ इशारा करती है। कवयित्री बचपन को फिर से जीने की चाह व्यक्त करती हैं और बताती हैं कि वह अब भी अपने बचपन की दुनिया को बहुत याद करती हैं, जहाँ सब कुछ खुशहाल और निर्दोष था।